क्या अमित शाह की अध्यक्षता में भाजपा वह कर सकती है जो कांग्रेस अपने चरम पर भी नहीं कर सकी?
2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के हाथों करारी हार का सामना करने वाली भाजपा ने बुधवार को बिना चुनाव के ही एक बड़ी कामयाबी हासिल कर ली है. राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़कर भाजपा के साथ हाथ मिला लिया है. बुधवार को इस्तीफा देकर उन्होंने गुरुवार को एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. 12 साल में यह छठवीं बार है जब नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है. भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी उपमुख्यमंत्री बने हैं.
2019 के आम चुनाव को देखते हुए इसे भाजपा की एक बड़ी कामयाबी माना जा रहा है. भाजपा ने इसके जरिए बिहार की सत्ता में वापसी करने के साथ ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार के एक मजबूत विकल्प के रूप में उभरने की संभावना भी खत्म कर दी. राजनीतिक गलियारों में माना जा रहा है कि नीतीश कुमार के साथ आने से भाजपा जितनी मजबूत हुई है, उससे कहीं अधिक कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष कमजोर हो गया है.
इसके बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह काफी राहत महसूस कर रहे होंगे. बिहार में भारी हार के बाद उनके नेतृत्व पर लाल कृष्ण आडवाणी सहित कई बड़े नेताओं ने सवाल उठाए थे. इसके अलावा माना गया था कि देश में अब मोदी लहर खत्म हो गई है. बिहार में फिर जदयू और भाजपा की सरकार बनने से अमित शाह के रिकॉर्ड पर लगा एक बड़ा धब्बा धुल गया है.
अमित शाह अपनी कई रैलियों में कह चुके हैं कि पार्टी का मकसद पूरे देश पर अपनी एकछत्र सत्ता स्थापित करना है. अध्यक्ष के रूप में उनकी कार्यशैली पर नजर रखने वाले जानकार बताते हैं कि वे इसे हासिल करने के लिए कोई भी कदम उठाने के लिए तैयार दिखते हैं. ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश कुमार का लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़कर भाजपा के साथ आना इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है.
ऐतिहासिक उपलब्धि का लक्ष्य
साल 1951-52 के आम चुनाव से लेकर अभी तक आम चुनाव में किसी पार्टी ने 50 फीसदी मत हासिल नहीं किए हैं. 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस 49.1 फीसदी के आंकड़े तक पहुंची थी और उसने 514 में से 404 सीटें जीती थीं. अगर आम चुनाव के तुरंत बाद 1985 में हुए असम और पंजाब के लोकसभा चुनावों को भी मिला दें तो पार्टी को मिली कुल सीटों की संख्या 414 पहुंच गई थी. भाजपा इस रिकॉर्ड के आगे जाना चाहती है. 2014 के चुनाव में 282 सीटों के साथ अकेले बहुमत हासिल करने के बाद भी आलोचकों का कहना है कि इस सरकार को केवल 31 फीसदी लोगों का ही समर्थन हासिल है. माना जा रहा है कि अमित शाह ने इस आलोचना को एक चुनौती के रूप में लिया है. द टेलिग्राफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा अध्यक्ष ने 2019 के आम चुनाव में 50 फीसदी से अधिक वोट हासिल करने का लक्ष्य रखा है. हालांकि इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि लक्ष्य मुश्किल होने की वजह से इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं की गई. इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन 150 संसदीय सीटों में से 120 सीटों (80 फीसदी) पर जीत हासिल करने की योजना है जिन पर 2014 में पार्टी को हार मिली थी.
लक्ष्य के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार
साल 2014 में केंद्र सरकार में राजनाथ सिंह को गृहमंत्री का पद मिलने के बाद अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई. इसके बाद उन्होंने पार्टी का पूरे देश में विस्तार करने के लिए जिस तरह की आक्रामक कार्यशैली अपनाई, उसके नतीजे में भाजपा अन्य पार्टियों की तुलना में कहीं आगे नजर आ रही है. बीते अप्रैल में ओडिशा में आयोजित भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अमित शाह ने पंचायत से लेकर संसद तक ‘कमल’ खिलाने की बात कही थी. इसके लिए वे कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते. पिछले तीन साल के दौरान अमित शाह की कार्यशैली पर नजर रखने वाले राजनीतिक जानकार बताते हैं कि वे सत्ता हासिल करने के लिए पार्टी के संस्थापकों द्वारा तय किए सिद्धांतों को हाशिए पर रखने के लिए तैयार दिखते हैं. केंद्र में सत्ता संभालने के बाद ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा देने वाली भाजपा पर खुद को ‘कांग्रेस युक्त’ बनाने के आरोप कुछ समय से लग ही रहे हैं. हालांकि इस आरोप पर न्यूज चैनल एबीपी के एक कार्यक्रम में अमित शाह का कहना था,
‘विचारधारा भाजपा ने नहीं बदली है. अगर कोई अपनी विचारधारा बदलकर भाजपा की विचारधारा स्वीकार करना चाहता है, तो उनका स्वागत है.’ वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक और ‘नरेंद्र मोदी : एक शख्सियत, एक दौर’ के लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा जिस ‘फोकस्ड’ तरीके से काम कर रही है, उस लिहाज से कोई भी पार्टी उसके नजदीक नहीं दिखती.’ वे आगे कहते हैं, ‘बदलते समय के साथ भाजपा की प्राथमिकताएं बदली हैं. पहले पार्टी अपने सिद्धांतों पर जोर देती थी, उसके बाद चुनाव जीतने पर. अब चुनाव जीतना महत्वपूर्ण हो गया है.’
द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण भारत के पांच राज्यों आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में पार्टी को मजबूत करने के लिए भाजपा ने ‘दक्षिण मिशन’ की शुरुआत की है. इनके अलावा पश्चिम बंगाल और ओडिशा पर भी पार्टी का पूरा ध्यान है. इन राज्यों में अपना आधार मजबूत करने के लिए खास नीति के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लोगों पर जमीनी पकड़ और नरेंद्र मोदी के चेहरे का इस्तेमाल करने की योजना है. साथ ही दूसरी पार्टियों के बड़े नेताओं को भाजपा में शामिल करने और छोटी पार्टियों के विलय का खाका तैयार किया गया है. इनके अलावा सत्ता विरोधी लहर को खत्म करने के लिए सांसदों, विधायकों या पार्षदों के टिकट काट देना भाजपा की कारगर नीति के रूप में सामने आई है.
चुनावों के दौरान भाजपा पर सांप्रदायिक राजनीति करने के आरोप लगते हैं. माना जाता है कि इन आलोचनाओं से बेफिक्र अमित शाह जिला से लेकर बूथ स्तर तक पार्टी की नीति तय करने में जाति और धर्म का पूरा ख्याल रखते हैं. साल 2015 में बिहार में पार्टी के चुनावी अभियान में शामिल सौरभ शेखर बताते हैं, ‘अमित शाह बूथ स्तर पर आबादी का जातिवार ब्यौरा देखते हैं. इसके आधार पर ही तय होता है कि किसी विशेष बूथ में पार्टी का कामकाज कौन देखेगा.’ उनके मुताबिक इलाके के चुनावी समीकरणों को ध्यान में रखकर यह भी तय होता है कि मुद्दा जाति को बनाना है कि धर्म को.
वे उपलब्धियां जिनकी वजह से अमित शाह के लिए यह लक्ष्य असंभव नहीं दिखता
चाणक्य को अपना आदर्श मानने वाले अमित शाह ने साल 2014 के आम चुनाव से लेकर कई राज्यों के चुनावों में भाजपा की जीत में अहम भूमिका निभाई है. हालांकि, इसके बाद पार्टी अध्यक्ष के रूप में पहले दिल्ली और फिर बिहार विधानसभा चुनाव में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा. इस हार के बाद ही लाल कृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी नेतृत्व को इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए कहा था. इस दौरान अमित शाह के आगे अध्यक्ष बने रहने पर भी सवालिया निशान लगे थे. लेकिन इन सारी बातों को पीछे छोड़ते हुए अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष रहते हुए भाजपा ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, झारखण्ड और असम में अपने दम पर सरकार बनाई. इसके अलावा महाराष्ट्र में वह शिवसेना और जम्मू-कश्मीर में अपनी विचारधारा के उलट पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ सरकार में है. जबकि मणिपुर, गोवा और अरुणाचल प्रदेश में जोड़-तोड़ और राजनीतिक दाव-पेंच के जरिए पार्टी ने सरकार बनाने में सफलता हासिल की. अमित शाह इन उपलब्धियों में वैसे राज्यों को भी शामिल करते हैं, जहां पार्टी को भले ही हार का सामना करना पड़ा हो लेकिन, उसके मत प्रतिशत में बढ़ोतरी देखने को मिली है. ये राज्य हैं- केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुडुचेरी.
अमित शाह केंद्र के साथ जमीनी स्तर पर पार्टी का आधार बढ़ाने के लिए स्थानीय चुनावों पर भी पूरा ध्यान देने की नीति पर काम रहे हैं. पार्टी ने महाराष्ट्र में बीएमसी चुनाव में शिवसेना को कड़ी टक्कर दी. इसके अलावा उसने राज्य के 10 नगर निगमों में से आठ पर जीत हासिल की. भाजपा ने उन राज्यों में भी अपनी पकड़ मजबूत की जहां उनका जनाधार कमजोर रहा है. हाल में ओडिशा की 30 जिला पंचायतों में से आठ में भाजपा का बहुमत हासिल करना सत्ताधारी बीजू जनता दल के लिए चिंता का सबब बना. पार्टी ने राज्य में कुल 849 में से 306 सीटों पर ने जीत हासिल की. 2012 में उसे केवल 36 सीटें ही मिली थीं. इससे पहले चंडीगढ़, गुजरात में भी इन चुनावों में उसने जीत हासिल की. इसी महीने पश्चिम बंगाल नगर निकाय चुनाव में भी पार्टी मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ मजबूत करते हुए दिखी है.
चुनौतियां
माना जा रहा है कि अमित शाह की कार्यशैली और उपलब्धियों को देखते हुए 50 फीसदी से ज्यादा वोट प्रतिशत का लक्ष्य बिल्कुल असंभव भी नहीं दिखता. लेकिन यह भी है कि यह उपलब्धि छूने के लिए उन्हें कुछ पहाड़ सरीखी चुनौतियों से होकर गुजरना है. नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘अमित शाह के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी में अनुशासन को बनाए रखना है. जैसे योगी आदित्यनाथ और हिमंत बिस्व सर्मा, जो संघ से नहीं आते हैं, का असंतुष्ट होना उसके लिए एक बड़ी चुनौती पैदा कर सकता है.’ वे आगे बताते हैं कि फिलहाल भाजपा नेतृत्व को संघ से कोई चुनौती नहीं है. उधर, वरिष्ठ पत्रकार और ‘द सैफरॉन टाइड : द राइज ऑफ बीजेपी’ के लेखक किंशुक नाग अमित शाह के लिए सबसे बड़ी बाधा संघ के रूप में मौजूद आंतरिक चुनौती को ही मानते हैं. उनका कहना है, ‘उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा नेतृत्व ने पहले मनोज सिन्हा का नाम तय किया था. लेकिन संघ के दखल के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया.’ वे आगे बताते हैं, ‘भाजपा को पूरे देश में एकसमान नीति अपनाने की जगह अलग-अलग राज्यों में वहां की स्थानीय परिस्थितियों को समझते हुए उनके आधार पर नीतियां बनाने की जरूरत है. इसके बिना पार्टी कामयाबी हासिल नहीं कर सकती.’ बीते कुछ समय के घटनाक्रम देखें तो कुछ हद तक भाजपा ऐसा करती भी दिख रही है. उत्तर प्रदेश सहित अधिकांश राज्यों में बीफ पर रोक उसकी प्राथमिकताओं में शुमार दिखती है तो दूसरी तरफ उत्तर-पूर्व के राज्यों के बारे में उसने इस मसले पर दखल नहीं देने की बात कही है. इसके अलावा जहां अमित शाह जहां महिला अधिकार और सुरक्षा की बातें करते हैं तो वहीं खाप पंचायतों के खिलाफ टिप्पणी करने से इनकार भी करते हैं. यानी भाजपा इन चुनौतियों को समझ रही है.
2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के हाथों करारी हार का सामना करने वाली भाजपा ने बुधवार को बिना चुनाव के ही एक बड़ी कामयाबी हासिल कर ली है. राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़कर भाजपा के साथ हाथ मिला लिया है. बुधवार को इस्तीफा देकर उन्होंने गुरुवार को एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. 12 साल में यह छठवीं बार है जब नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है. भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी उपमुख्यमंत्री बने हैं.
2019 के आम चुनाव को देखते हुए इसे भाजपा की एक बड़ी कामयाबी माना जा रहा है. भाजपा ने इसके जरिए बिहार की सत्ता में वापसी करने के साथ ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार के एक मजबूत विकल्प के रूप में उभरने की संभावना भी खत्म कर दी. राजनीतिक गलियारों में माना जा रहा है कि नीतीश कुमार के साथ आने से भाजपा जितनी मजबूत हुई है, उससे कहीं अधिक कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष कमजोर हो गया है.
इसके बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह काफी राहत महसूस कर रहे होंगे. बिहार में भारी हार के बाद उनके नेतृत्व पर लाल कृष्ण आडवाणी सहित कई बड़े नेताओं ने सवाल उठाए थे. इसके अलावा माना गया था कि देश में अब मोदी लहर खत्म हो गई है. बिहार में फिर जदयू और भाजपा की सरकार बनने से अमित शाह के रिकॉर्ड पर लगा एक बड़ा धब्बा धुल गया है.
अमित शाह अपनी कई रैलियों में कह चुके हैं कि पार्टी का मकसद पूरे देश पर अपनी एकछत्र सत्ता स्थापित करना है. अध्यक्ष के रूप में उनकी कार्यशैली पर नजर रखने वाले जानकार बताते हैं कि वे इसे हासिल करने के लिए कोई भी कदम उठाने के लिए तैयार दिखते हैं. ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश कुमार का लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़कर भाजपा के साथ आना इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है.
ऐतिहासिक उपलब्धि का लक्ष्य
साल 1951-52 के आम चुनाव से लेकर अभी तक आम चुनाव में किसी पार्टी ने 50 फीसदी मत हासिल नहीं किए हैं. 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस 49.1 फीसदी के आंकड़े तक पहुंची थी और उसने 514 में से 404 सीटें जीती थीं. अगर आम चुनाव के तुरंत बाद 1985 में हुए असम और पंजाब के लोकसभा चुनावों को भी मिला दें तो पार्टी को मिली कुल सीटों की संख्या 414 पहुंच गई थी. भाजपा इस रिकॉर्ड के आगे जाना चाहती है. 2014 के चुनाव में 282 सीटों के साथ अकेले बहुमत हासिल करने के बाद भी आलोचकों का कहना है कि इस सरकार को केवल 31 फीसदी लोगों का ही समर्थन हासिल है. माना जा रहा है कि अमित शाह ने इस आलोचना को एक चुनौती के रूप में लिया है. द टेलिग्राफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा अध्यक्ष ने 2019 के आम चुनाव में 50 फीसदी से अधिक वोट हासिल करने का लक्ष्य रखा है. हालांकि इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि लक्ष्य मुश्किल होने की वजह से इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं की गई. इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन 150 संसदीय सीटों में से 120 सीटों (80 फीसदी) पर जीत हासिल करने की योजना है जिन पर 2014 में पार्टी को हार मिली थी.
लक्ष्य के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार
साल 2014 में केंद्र सरकार में राजनाथ सिंह को गृहमंत्री का पद मिलने के बाद अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई. इसके बाद उन्होंने पार्टी का पूरे देश में विस्तार करने के लिए जिस तरह की आक्रामक कार्यशैली अपनाई, उसके नतीजे में भाजपा अन्य पार्टियों की तुलना में कहीं आगे नजर आ रही है. बीते अप्रैल में ओडिशा में आयोजित भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अमित शाह ने पंचायत से लेकर संसद तक ‘कमल’ खिलाने की बात कही थी. इसके लिए वे कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते. पिछले तीन साल के दौरान अमित शाह की कार्यशैली पर नजर रखने वाले राजनीतिक जानकार बताते हैं कि वे सत्ता हासिल करने के लिए पार्टी के संस्थापकों द्वारा तय किए सिद्धांतों को हाशिए पर रखने के लिए तैयार दिखते हैं. केंद्र में सत्ता संभालने के बाद ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा देने वाली भाजपा पर खुद को ‘कांग्रेस युक्त’ बनाने के आरोप कुछ समय से लग ही रहे हैं. हालांकि इस आरोप पर न्यूज चैनल एबीपी के एक कार्यक्रम में अमित शाह का कहना था,
‘विचारधारा भाजपा ने नहीं बदली है. अगर कोई अपनी विचारधारा बदलकर भाजपा की विचारधारा स्वीकार करना चाहता है, तो उनका स्वागत है.’ वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक और ‘नरेंद्र मोदी : एक शख्सियत, एक दौर’ के लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा जिस ‘फोकस्ड’ तरीके से काम कर रही है, उस लिहाज से कोई भी पार्टी उसके नजदीक नहीं दिखती.’ वे आगे कहते हैं, ‘बदलते समय के साथ भाजपा की प्राथमिकताएं बदली हैं. पहले पार्टी अपने सिद्धांतों पर जोर देती थी, उसके बाद चुनाव जीतने पर. अब चुनाव जीतना महत्वपूर्ण हो गया है.’
द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण भारत के पांच राज्यों आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में पार्टी को मजबूत करने के लिए भाजपा ने ‘दक्षिण मिशन’ की शुरुआत की है. इनके अलावा पश्चिम बंगाल और ओडिशा पर भी पार्टी का पूरा ध्यान है. इन राज्यों में अपना आधार मजबूत करने के लिए खास नीति के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लोगों पर जमीनी पकड़ और नरेंद्र मोदी के चेहरे का इस्तेमाल करने की योजना है. साथ ही दूसरी पार्टियों के बड़े नेताओं को भाजपा में शामिल करने और छोटी पार्टियों के विलय का खाका तैयार किया गया है. इनके अलावा सत्ता विरोधी लहर को खत्म करने के लिए सांसदों, विधायकों या पार्षदों के टिकट काट देना भाजपा की कारगर नीति के रूप में सामने आई है.
चुनावों के दौरान भाजपा पर सांप्रदायिक राजनीति करने के आरोप लगते हैं. माना जाता है कि इन आलोचनाओं से बेफिक्र अमित शाह जिला से लेकर बूथ स्तर तक पार्टी की नीति तय करने में जाति और धर्म का पूरा ख्याल रखते हैं. साल 2015 में बिहार में पार्टी के चुनावी अभियान में शामिल सौरभ शेखर बताते हैं, ‘अमित शाह बूथ स्तर पर आबादी का जातिवार ब्यौरा देखते हैं. इसके आधार पर ही तय होता है कि किसी विशेष बूथ में पार्टी का कामकाज कौन देखेगा.’ उनके मुताबिक इलाके के चुनावी समीकरणों को ध्यान में रखकर यह भी तय होता है कि मुद्दा जाति को बनाना है कि धर्म को.
वे उपलब्धियां जिनकी वजह से अमित शाह के लिए यह लक्ष्य असंभव नहीं दिखता
चाणक्य को अपना आदर्श मानने वाले अमित शाह ने साल 2014 के आम चुनाव से लेकर कई राज्यों के चुनावों में भाजपा की जीत में अहम भूमिका निभाई है. हालांकि, इसके बाद पार्टी अध्यक्ष के रूप में पहले दिल्ली और फिर बिहार विधानसभा चुनाव में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा. इस हार के बाद ही लाल कृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी नेतृत्व को इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए कहा था. इस दौरान अमित शाह के आगे अध्यक्ष बने रहने पर भी सवालिया निशान लगे थे. लेकिन इन सारी बातों को पीछे छोड़ते हुए अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष रहते हुए भाजपा ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, झारखण्ड और असम में अपने दम पर सरकार बनाई. इसके अलावा महाराष्ट्र में वह शिवसेना और जम्मू-कश्मीर में अपनी विचारधारा के उलट पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ सरकार में है. जबकि मणिपुर, गोवा और अरुणाचल प्रदेश में जोड़-तोड़ और राजनीतिक दाव-पेंच के जरिए पार्टी ने सरकार बनाने में सफलता हासिल की. अमित शाह इन उपलब्धियों में वैसे राज्यों को भी शामिल करते हैं, जहां पार्टी को भले ही हार का सामना करना पड़ा हो लेकिन, उसके मत प्रतिशत में बढ़ोतरी देखने को मिली है. ये राज्य हैं- केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुडुचेरी.
अमित शाह केंद्र के साथ जमीनी स्तर पर पार्टी का आधार बढ़ाने के लिए स्थानीय चुनावों पर भी पूरा ध्यान देने की नीति पर काम रहे हैं. पार्टी ने महाराष्ट्र में बीएमसी चुनाव में शिवसेना को कड़ी टक्कर दी. इसके अलावा उसने राज्य के 10 नगर निगमों में से आठ पर जीत हासिल की. भाजपा ने उन राज्यों में भी अपनी पकड़ मजबूत की जहां उनका जनाधार कमजोर रहा है. हाल में ओडिशा की 30 जिला पंचायतों में से आठ में भाजपा का बहुमत हासिल करना सत्ताधारी बीजू जनता दल के लिए चिंता का सबब बना. पार्टी ने राज्य में कुल 849 में से 306 सीटों पर ने जीत हासिल की. 2012 में उसे केवल 36 सीटें ही मिली थीं. इससे पहले चंडीगढ़, गुजरात में भी इन चुनावों में उसने जीत हासिल की. इसी महीने पश्चिम बंगाल नगर निकाय चुनाव में भी पार्टी मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ मजबूत करते हुए दिखी है.
चुनौतियां
माना जा रहा है कि अमित शाह की कार्यशैली और उपलब्धियों को देखते हुए 50 फीसदी से ज्यादा वोट प्रतिशत का लक्ष्य बिल्कुल असंभव भी नहीं दिखता. लेकिन यह भी है कि यह उपलब्धि छूने के लिए उन्हें कुछ पहाड़ सरीखी चुनौतियों से होकर गुजरना है. नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘अमित शाह के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी में अनुशासन को बनाए रखना है. जैसे योगी आदित्यनाथ और हिमंत बिस्व सर्मा, जो संघ से नहीं आते हैं, का असंतुष्ट होना उसके लिए एक बड़ी चुनौती पैदा कर सकता है.’ वे आगे बताते हैं कि फिलहाल भाजपा नेतृत्व को संघ से कोई चुनौती नहीं है. उधर, वरिष्ठ पत्रकार और ‘द सैफरॉन टाइड : द राइज ऑफ बीजेपी’ के लेखक किंशुक नाग अमित शाह के लिए सबसे बड़ी बाधा संघ के रूप में मौजूद आंतरिक चुनौती को ही मानते हैं. उनका कहना है, ‘उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा नेतृत्व ने पहले मनोज सिन्हा का नाम तय किया था. लेकिन संघ के दखल के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया.’ वे आगे बताते हैं, ‘भाजपा को पूरे देश में एकसमान नीति अपनाने की जगह अलग-अलग राज्यों में वहां की स्थानीय परिस्थितियों को समझते हुए उनके आधार पर नीतियां बनाने की जरूरत है. इसके बिना पार्टी कामयाबी हासिल नहीं कर सकती.’ बीते कुछ समय के घटनाक्रम देखें तो कुछ हद तक भाजपा ऐसा करती भी दिख रही है. उत्तर प्रदेश सहित अधिकांश राज्यों में बीफ पर रोक उसकी प्राथमिकताओं में शुमार दिखती है तो दूसरी तरफ उत्तर-पूर्व के राज्यों के बारे में उसने इस मसले पर दखल नहीं देने की बात कही है. इसके अलावा जहां अमित शाह जहां महिला अधिकार और सुरक्षा की बातें करते हैं तो वहीं खाप पंचायतों के खिलाफ टिप्पणी करने से इनकार भी करते हैं. यानी भाजपा इन चुनौतियों को समझ रही है.
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